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बेहतरीन अदाकारी और उतनी हीं उम्दा प्रस्तुति के कारण नाटक 'जल डमरू बाजे' याद रखा जाएगा

कहाँ हो मुकुंद ? अभी आधे घंटे के अंदर पटना जंक्शन पहुँचो. दोपहर को कढ़ी चावल खाकर लेटा हुआ था कि चाचाजी से फोन पर ये बातें हुई. आँख मलते हुए किसी तरह उठकर ऑटो लेकर जंक्शन के लिए निकल पड़ा. सच कहूं तो उठने का जी बिल्कुल भी नहीं कर रहा था, ग़र चाचाजी ना रहे होते तो सचमुच जाता भी नहीं. खैर जंक्शन जाकर चाचाजी से मिल आया वो गांव से मेरा पसंदीदा सिया झा का पेड़ा लेते आये थे जिसे बैग में रखकर मैं वापस लाॅज के लिए चल पड़ा. पटना जंक्शन से भिखना पहाड़ी गांधी मैदान होकर आना पड़ता है जहां मेरी नजरें कालीदास रंगालय के द्वार पर पड़ी जहाँ नाटक जल डमरू बाजे का बैनर चमक रहा था. वहीं ऑटो का भाड़ा चुकता कर रंगालय के अंदर चला आया. क्योंकि इस नाटक की तारीफ दोस्तों से कई बार सुन चुका था और एक दफा मैलोरंग द्वारा मैथिली में मंचित इसी नाटक का प्रदर्शन छोड़ चुका था जिसके कारण अबकी मौका गवांना सही ना लगा. निमार्ण कला मंच, पटना के 27 वें वर्षगांठ पर मंचित नाटक जल डमरू बाजे ने पहले दृश्य से हीं ध्यान पूरी तरह अपनी ओर आकृष्ट कर लिया और ज्यों-ज्यों पटकथा आगे बढ़ता गया लोग-बाग इसके दृश्यों

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