मांझी-द माउन्टेनमैन: एक बेहद हीं शानदार, जबरजस्त और जिन्दाबाद फिल्म


बचपन से हीं लोगों को सच्चे प्रेम का मिशाल ताजमहल को कहते-बताते सुनते आ रहा हूं , पर केतन मेहता की फिल्म 'मांझी- द माउंटेनमैन' देखने पर पता चला की सच्चा प्यार क्या होता है ? सच्चे प्यार को किस कदर निभाया जाता है ? प्रेम में इस तरह का एतिहासिक कमिटमेंट भी हो सकता है यह दशरथ मांझी के सच्ची जीवनगाथा पर आधारित इस फिल्म से मालूम चलती है.

निश्चित हीं 'मांझी द माउंटेनमैन' केतन मेहता की अब तक की सबसे प्रभावशाली फिल्म है, जो कि उनका चौथा बायोपिक है. इससे पहले मेहता सरदार पटेल, मंगलपांडे और राजा रवि वर्मा के एतिहासिक जीवन पर बायोपिक बना चुके हैं. पर उन बायोपिको की तरह मांझी कोई एतिहासिक बायोपिक ना होकर एक आम आदमी के एतिहासिक बनने की बायोपिक है.

पर इतना जरूर है कि मांझी भले हीं केतन मेहता की बायोपिक फिल्म है, पर यह कहीं से भी उनकी अन्य बायोपिकों (सरदार पटेल मैंने देखा नहीं) की तरह बोझिल नहीं करती. फिल्म जितनी हीं गंभीर है, उतनी हीं मनोरंजक भी, ड्रामा भी. हां कहीं कहीं फिल्म पर पकड़ जरा कमजोर हुई है, पर बायोपिक की अपनी अलग मजबूरियां रहती है.

फिल्म का मुख्य आकर्षण दशरथ मांझी के किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दीकी का अभिनय हीं है. पूरी फिल्म में नवाज अपने सहज अभिनय और डायलाॅग डिलिवरी की तरह शानदार, जबरजस्त, जिंदाबाद लगे. बाइस साल तक पहाड़ को छैनी और हथौड़े से काटने वाले दशरथ मांझी के संघर्षमय जीवनगाथा को उसने जिस जीवंतता से जिया है, उससे पूरी तरह से सचमुच के दशरथ मांझी की इमेज उभरकर स्क्रीन पर आयी है. नवाज अपनी चालढ़ाल, बाॅडी लैंगवेज और डायलाॅग डिलिवरी में जिस तरह आंचलिकता का रस भरा है, वो काबिले-तारीफ है.

इस फिल्म में दशरथ मांझी के अमर प्रेमकथा के साथ साथ छूआछूत, बंधुआ व्यवस्था तथा इंदिरा गांधी के शासनकाल में हुए आपातकाल के हालात भी डाले गये हैं. जिनके खिलाफ़ बचपन से हीं बागी तेवर रखने वाले मांझी अपनी पत्नी के पहाड़ उस पार खेतों में खाना पहुंचाने के क्रम में पहाड़ से गिरकर मर जाने के बाद हथौड़ी-छैनी लेकर पहाड़ काटने का प्रण करता है, जिसके बाद बिहार के गया जिले में गहलारे से वजीरगंज के बीच मांझी द्वारा उंचे पहाड़ को अकेले काटकर रास्ता बना देने की एतिहासिक घटना सामने आती है.


मांझी की पत्नी फगुनिया की भूमिका में राधिका आप्टे भी अपने छोटे से किरदार में बेहद सहज और सुंदर लगती है. वहीं मांझी के पिता मगरू के किरदार में हाल हीं में दिवंगत अभिनेता अशरफुल हक ने भी अपने जीवन का यादगार अभिनय किया है. मुखिया के किरदार में तिगमांशु धूलिया निर्देशक के अलावे अपने अच्छे अभिनेता होने की पुख्ता सबूत देते हैं, कम पिच पर उनकी संवाद अदायगी हैरान करती है. मुखिया के बेटे के किरदार में पंकज त्रिपाठी भी जंचे हैं.

अभिनय की बात हो हीं रही है तो लगे हाथ ये भी बता दूं की पटना के एचएमटी के मशहूर रंगकर्मी हज्जू जी ने भी इस फिल्म में भ्रष्ट वन विभाग पदाधिकारी का छोटा किरदार निभाया है, उन्हें स्क्रीन पर देखना सुखद एहसास रहा.

यह फिल्म आम लोगों पर राजनेताओं और बाबू व्यवस्था के द्वारा हो रहे अन्याय पर भी करारी चोट करती है. आजादी के बाद की इस कहानी में लोगों के पराधीन होकर बंघुआ मजदूरी और शोषित होकर जीने की विवशता भी सामने आती है. तो उच्च जाति के लोगों द्वारा छोटे जात की महिलाएं पर हो रहे यौन अत्याचार भी.

कुल मिलाकर ग़र आप दशरथ मांझी का जीवनगाथा जानते भी हैं तो भी यह आपके लिए यह एक मस्ट वाॅच मूवी है जो कि अंतर्जाल पर लीक होने के वावजूद आपके सिनेमाघर में होने की मांग करती है.

बालमुकुंद

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